आज के चुनिंदा शेर
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मौसम के बदलने का कुछ अंदाज़ा भी होता
जब घर ही बनाया था तो दरवाज़ा भी होता
मज़हर इमाम
उस शख़्स के ग़म का कोई अंदाज़ा लगाए
जिस को कभी रोते हुए देखा न किसी ने
वकील अख़्तर
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बहार आई है रंग-ए-क़यास ताज़ा लिए
शजर शजर के बदन पर लिबास ताज़ा लिए
क़ुरबान आतिश
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तुम्हारे घर में दरवाज़ा है लेकिन तुम्हें ख़तरे का अंदाज़ा नहीं है
हमें ख़तरे का अंदाज़ा है लेकिन हमारे घर में दरवाज़ा नहीं है
क़द का अंदाज़ा तुम्हें हो जाएगा
अपने साए को घटा कर देखना
आग़ाज़ बरनी
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आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
ग़ालिब
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
फ़राज़
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और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता
निदा फ़ाज़ली
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ख़ुद अपनी मस्ती है जिस ने मचाई है हलचल
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल
आरिफ़ जलाली
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
मिर्ज़ा ग़ालिब
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इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
मिर्ज़ा ग़ालिब
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
जिगर मुरादाबादी
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उड़ने दो परिंदों को अभी शोख़ हवा में
फिर लौट के बचपन के ज़माने नहीं आते
बशीर बद्र
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