गुलजार की दर्द भरी शायरी
मैं कभी सिगरेट पीता नहीं मगर हर आने वाले से पूछ लेता हूँ कि माचिस है? बहुत कुछ है जिसे मैं फूँक देना चाहता हूँ.
कल फिर चाँद का
ख़ंजर घोंप के सीने में
कल फिर चाँद का खंजर
घोंप के सीने में
हम तो कितनों को मह-जबीं कहते
आप हैं इस लिए नहीं कहते
चाँद होता न आसमाँ पे अगर
हम किसे आप सा हसीं कहते
सहमा सहमा डरा सा रहता है
जाने क्यूँ जी भरा सा रहता है
एक पल देख लूँ तो उठता हूँ
जल गया घर ज़रा सा रहता है.
अपने साए पे पाँव रखता हूँ
छाँव छालों को नर्म लगती है
चाँद की नब्ज़ देखना उठ कर
रात की साँस गर्म लगती है
हवा के सींग न पकड़ो खदेड़ देती है
ज़मीं से पेड़ों के टाँके उधेड़ देती है
मैं चुप कराता हूँ हर शब उमड़ती बारिश को
मगर ये रोज़ गई बात छेड़ देती है
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अनमोल नहीं लेकिन फिर भी
पूछ तो मुफ़्त का मोल कभी
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