सोचने से कहाँ मिलते है तमन्नाओं के शहर, चलना भी जरूरी है मंजिल को पाने के लिए
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंजिल,
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा
एक रास्ता यह भी है मंजिलों को पाने का, कि सीख लो तुम भी हुनर हाँ में हाँ मिलाने का।।
ना जाने क्यों इंसान को इंसान होने पर गुमान है, जबकि सफर ताउम्र है और मंजिल दो गज मकान है
मंजिल मिल ही जायेगी भटकते-भटकते ही सही,
गुमराह तो वो है जो घर से निकलते ही नहीं.
रास्ते मुश्किल है पर हम मंज़िल ज़रूर पायेंगे
ये जो किस्मत अकड़ कर बैठी है इसे भी ज़रूर हरायेंगे
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